महाराष्ट्र जैन वार्ता
पुणे : प्यार और अपनापन से जो एक धागा जुड़ता है, उसे ही रिश्ता कहा जाता है। कुछ रिश्ते हमें जन्म से ही मिल जाते हैं, जबकि कुछ रिश्ते समय के साथ हमारे कर्मों और पिछले जन्मों के ऋणानुबंधों से बनते हैं। रिश्तों में विश्वास, पारदर्शिता और किसी के प्रति गहरी अपनत्व की भावना रिश्तों को मजबूत बनाती है। रिश्तों में निःस्वार्थ प्रेम और निर्मलता ही उन बंधनों को जोड़े रखती है।
लेकिन कभी-कभी स्वयं में या व्यक्ति-विशेष के अनुसार इन रिश्तों की जांच करना बहुत आवश्यक होता है। मोह और निर्मल रिश्ते के बीच का अंतर समझना जरूरी है। मोह में अधिकार जताया जाता है, हक़ और आक्रामकता होती है।
मोह में हल्की-सी अंधकार की छाया रहती है। इसके विपरीत, निर्मल रिश्ते में अधिकार नहीं बल्कि प्रेम की भावना होती है। अतिरेक नहीं बल्कि समर्पण की भावना होती है। त्याग का भाव होता है। जिस रिश्ते में शिकायतें और कमियां दिखाई देती हैं, वे रिश्ते कभी भी स्नेहपूर्ण या स्वस्थ नहीं होते।
उनमें मोह का अंश छिपा होता है। जिन रिश्तों में खुला या छुपा स्वार्थ होता है, वहां निर्मल प्रेम की संभावना समाप्त हो जाती है। मोह से व्यक्ति में सामने वाले को अपना गुलाम बनाने की प्रवृत्ति पैदा होती है। जहां निःस्वार्थ भाव होता है, वहां व्यक्ति को समझने के लिए या उससे संवाद करने के लिए शब्दों की आवश्यकता नहीं होती। बिना शब्दों के सब समझ लिया जाता है।
इसी तरह जब हम परमेश्वर से संबंध जोड़ते हैं, तब हमारी भक्ति ऐसी होनी चाहिए कि हम स्वयं ईश्वरमय हो जाएं। ईश्वर-भक्ति और उससे मिलने की तड़प गर्भावस्था से ही शुरू होनी चाहिए। जो हमारे उपयोग में आता है, उसे ही हम देवता का स्थान देते हैं।
यह भक्ति लेने-देने वाली और मोह में फंसाने वाली होती है। इसके बजाय यह भाव रखना चाहिए कि मैं क्या दे सकता हूँ, और दूसरों को देने में कहाँ कमी रह गई है। ऐसा भाव रखने से ईश्वर-प्राप्ति का अनुभव होता है। इसलिए, अन्य बातों में उलझे रहने की बजाय हमें ईश्वर-भक्ति में लीन होकर, ईश्वर में ही रमण करने का प्रयास करना चाहिए।















