महाराष्ट्र जैन वार्ता
पुणे : कोई भी कार्य करते समय उसे अधूरा या रक्षित करके नहीं करना चाहिए। वहाँ भी आपका सौ प्रतिशत देना आवश्यक है। जो भी करें, उसे सर्वोत्तम रूप में करें। बिना कुछ भी पीछे रखे, अपनी पूरी क्षमता के अनुसार श्रेष्ठतम देना ही वास्तव में सौ प्रतिशत प्रयास करना होता है – ऐसा प्रेरणादायी विचार प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने व्यक्त किया।
‘परिवर्तन 2025’ चातुर्मास के अंतर्गत आयोजित प्रवचन माला में वे मार्गदर्शन कर रहे थे। उन्होंने कहा कि जब कोई कार्य आप कर सकते हैं, फिर भी आप उसे नहीं करते, तो उस बात की खंत (अफसोस) रह जाती है। मन में यह खेद बना रहता है कि “मैं कर सकता था, पर प्रयास नहीं किया।” इसलिए, हमारे भीतर जो शक्ति है, उसका उचित उपयोग किया जाना चाहिए।
प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने कहा कि हमारे पास दो प्रकार की शक्तियाँ होती हैं, एक शरीर की शक्ति और दूसरी आत्मा की चैतन्यस्वरूप शक्ति। जो व्यक्ति अपनी इन शक्तियों को भीतर ही दबाकर रखता है, उसे प्रभु महावीर ‘चोर’ की संज्ञा देते हैं। यदि कोई व्यक्ति जीवन में पिछड़ता है, उसका स्तर नहीं बढ़ता, तो उसका एकमात्र कारण वह स्वयं होता है।
क्योंकि उसने अपनी शरीर और आत्मा की शक्तियों को छिपाकर रखा है। यदि आप चाहते हैं कि आपकी शक्तियाँ सतत विकसित होती रहें, तो इन्हें कभी दबाकर न रखें। यदि आप अपनी शक्ति को दबाकर रखेंगे, तो वही शक्ति एक दिन आपके लिए बोझ बन जाएगी।
एक बार इंद्रभूति गौतम ने भगवान महावीर से प्रश्न किया – “यदि दो पहलवान, जिनकी ताकद, गुण, कद-काठी सब समान हैं, आपस में कुश्ती लड़ते हैं, तो उनमें से एक हारता क्यों है और दूसरा क्यों जीतता है?” इसका उत्तर देते हुए भगवान महावीर ने कहा, “जिसने अपनी ताकद, शक्ति और वीरता का संपूर्ण उपयोग किया, वही विजयी हुआ।”
यानी जीत या हार आपके हाथ में होती है। इसके लिए आप न तो नसीब को, न परिस्थिति को, न ही भगवान को दोष दें। आपकी हार ईश्वर के कारण नहीं होती, बल्कि आपके भीतर छिपे हुए ‘चोर’ के कारण होती है। जब वह चोर जागता है, तब आप हारते हैं; और जब आपके भीतर का ‘सावकार’ जागता है, तब आप जीतते हैं।
महावीर ने यह भी स्पष्ट किया कि जीतना या हारना महत्वपूर्ण नहीं होता, बल्कि उसके लिए लड़ना महत्त्वपूर्ण होता है। “ख़ूब लड़ी वो मर्दानी…” – इस पंक्ति का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि जिस उत्साह और समर्पण से वह लड़ी, वह पराजित होकर भी विजयी हुई और उसका विरोध करने वाले जीतकर भी हार गए।
इसलिए यह महत्वपूर्ण नहीं कि आप जीते या हारे – बल्कि आपने कैसे संघर्ष किया, यह अधिक मूल्यवान होता है। जीवन में ‘कल’ कभी नहीं आता। जब तक आपकी इंद्रियाँ क्षीण नहीं हो जातीं, तब तक अपने भीतर के पुरुषार्थ और सामर्थ्य से आपको जीना चाहिए। उस क्षण जब जीवन का अंतिम श्वास आए, तो वह केवल कृतज्ञता से नहीं, बल्कि धन्यता से भरा होना चाहिए।
आपको खेद के साथ जीना है या आनंद से – यह निर्णय कोई और नहीं लेता, बल्कि आप स्वयं लेते हैं। इसी भाव को स्पष्ट करते हुए उन्होंने शालिभद्र की कथा सुनाई। आगे चलकर उन्होंने सेवा और अधिकार के अंतर को भी समझाया। उन्होंने कहा कि माता-पिता या गुरु की सेवा करना केवल हमारा कर्तव्य नहीं, बल्कि हमारा अधिकार है।
हनुमान के लिए राम की सेवा केवल कर्तव्य नहीं थी, वह उनका अधिकार था। इसका आशय यह है कि केवल सेवा लेना ही अधिकार नहीं होता, बल्कि सेवा करना भी एक अधिकार है।
