महाराष्ट्र जैन वार्ता
पुणे : “श्री आनंदऋषिजी गुरुदेव पूज्य क्यों बने? क्योंकि वे अखंडता के उपासक थे। एक-एक व्यक्ति को जोड़ते जाना ही उनका मुख्य कार्य था। आचार्य आनंदऋषिजी वास्तव में अजातशत्रु थे,” ऐसा भावपूर्ण प्रतिपादन प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने किया। परिवर्तन चातुर्मास 2025 के अंतर्गत आयोजित ‘आनंदगाथा’ प्रवचनमाला में उन्होंने बताया कि गुरु कैसा होना चाहिए, गुरु की महिमा का वर्णन कैसे किया जाना चाहिए, और गुरु का वास्तविक महत्व क्या होता है।
प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने कहा, “निरंतर आत्मचिंतन करना, ध्यान में लीन रहना और एक भी क्षण व्यर्थ न जाने देना – यही गुरुदेव आनंदऋषिजी के उच्च जीवन पद की पहचान थी।” अनादर और खंडन का वास्तविक अर्थ स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा, “मूर्ति की ओर पीठ करना उसका अनादर है, और मूर्ति को खंडित करना अर्थात् उसे तोड़ना, उसका खंडन है।
जब मूर्ति का खंडन किया जाता है, तो वह परमात्मा या गुरु के स्वरूप को तोड़ने के समान होता है। भारतीय परंपरा में यदि मूर्ति थोड़ी भी खंडित हो, तो उसकी पूजा नहीं की जाती। केवल अखंड मूर्ति की ही पूजा की जाती है। यह दर्शाता है कि साधना का मूल स्वर अखंडता में ही निहित है।”
इस अखंडता की धारा में विभिन्न विचारों का संगम होता है, परंतु इसका यह अर्थ नहीं कि हर विचार हमें स्वीकार्य होगा। ज्ञान सर्वत्र एक समान हो सकता है, किंतु उसका प्रकट स्वरूप भिन्न हो सकता है। उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि पाषाणप्रभु द्वारा निर्धारित व्यवस्था में भगवान महावीर केवल उसी मार्ग पर नहीं चले, बल्कि उसमें परिवर्तन लाने का प्रयास भी किया।
केवल पदचिन्हों पर चलना तो बकरियाँ और भेड़ें भी कर सकती हैं, लेकिन जिनकी दृष्टि आगम से प्रेरित होती है, वही पूज्य, गुरु और साधु कहलाते हैं। इसलिए परिवर्तन लाना आवश्यक है। प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने कहा कि परिवर्तन का अर्थ विरोध नहीं है, बल्कि वह एक सकारात्मक सोच है। आचार, विचार और क्रियाएं भिन्न हो सकती हैं, पर जो मुझसे अलग सोचता है, वह मेरा विरोधी है।
यह सोच अत्यंत विनाशकारी हो सकती है। जो व्यक्ति किसी पर आरोप-प्रत्यारोप नहीं करता, वही पूज्य होता है। इसलिए ऐसे पूज्य गुरुओं का खंडन कोई नहीं करता। जो किसी एक संत का अनादर करता है, वह समस्त साधु-संत समाज का अनादर करता है, और जो किसी एक संत का आदर करता है, वह पूरे संत समाज का सम्मान करता है।
प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने कहा, “आप जो आदर प्रकट कर रहे हैं, उसके पीछे आपका उद्देश्य क्या है? नमन करने का लक्ष्य क्या है? और चरण-स्पर्श करने का ध्येय क्या है? यह सबसे पहले समझिए।
जब भी आप किसी साधु या साध्वी को वंदन करें, तो आपकी भावना पूर्णतः निष्कलंक और निष्काम होनी चाहिए। तभी उनके भीतर के गुण, सद्गुरु तत्व, सदाचार और सद्विचार आप में प्रवाहित हो सकते हैं।”
गुरु से हमें यह सीखना चाहिए कि हमारी भाषा मधुर कैसे हो, हमारे व्यवहार में सौम्यता कैसे आए। गुरु के सान्निध्य में केवल उनकी बात सुनना ही नहीं, बल्कि उसे हृदयंगम करना आवश्यक है। गुरु ने जो उपदेश और दिशा दी है, उसी के अनुसार जीवन में अमल करना चाहिए।
