महाराष्ट्र जैन वार्ता
पुणे : आज के दिनों में चारों ओर का वातावरण जिस प्रकार दूषित होता जा रहा है, ऐसे समय में हमारे संस्कारों की परीक्षा निश्चित रूप से होने वाली है। क्या हमारे संस्कार कहीं खोते जा रहे हैं? क्या युवाओं की श्रद्धा में बदलाव आ रहा है? यदि ऐसा ही चलता रहा तो आने वाला समय कठिनाइयों से भरा हो सकता है। 25 से 40 वर्ष की आयु वर्ग के युवक यदि आज अपने धर्म से नहीं जुड़े, तो उनकी अगली पीढ़ी को कैसे जोड़ा जा सकेगा? यह गंभीर प्रश्न प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने प्रवचन में उठाया। यह विचार उन्होंने परिवर्तन चातुर्मास 2025 के अंतर्गत आयोजित प्रवचन माला में व्यक्त किए।
प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने कहा कि आज की पीढ़ी हमारे धार्मिक आचार-विचार और मूलभूत सिद्धांतों को भूलती जा रही है। ऐसा हम कहते हैं, लेकिन केवल बच्चों को दोष देना उचित नहीं है। बच्चे देखकर सीखते हैं। उनके विचार अभी पूरी तरह परिपक्व नहीं हुए होते।
इसलिए हमें उन्हें संभालना होगा, सजग बनाना होगा और उनके लिए संस्कार देने वाली प्रणाली तैयार करनी होगी। यही परिवर्तन चातुर्मास का उद्देश्य है। उन्होंने आगे कहा कि जब हम किसी को पूज्य, आराध्य और वंदनीय बनाने का लक्ष्य तय करते हैं, तो हमारे पास वैसी दृष्टि भी होनी चाहिए।
यदि हम उसी पद्धति से आचरण करें, तो निश्चित ही हम सफलता प्राप्त कर सकते हैं। गुरुदेव कभी यह नहीं कहते थे कि उन्होंने बहुत अध्ययन किया है, जबकि उनका अध्ययन अत्यंत विशाल था। परंतु उनके अध्ययन का उद्देश्य और उसमें मिलने वाला संतोष असीमित था।
उन्होंने कहा कि यदि मैं कभी सफलता की चरम सीमा पर पहुंचता भी हूं, तब भी अगला शिखर मुझे आकर्षित करता है। इसलिए ज्ञान, ध्यान और संयम में कभी संतोष का भाव नहीं लाना चाहिए। भौतिक वस्तुओं की इच्छा कम हो, आहार-विहार में भी सादगी हो, यह स्वीकार्य है। जो मिला है उसमें संतोष हो यह भी ठीक है। लेकिन उस सुख से आगे हमें क्या चाहिए, और हमें क्या करना है, इस पर चिंतन करना अत्यंत आवश्यक है।
